जिस पर्चे पर ये दवाई लिखते हैं, वहां दर्ज रजिस्ट्रेशन नंबर, उनका यूनिवर्सिटी रोल नंबर है
अररिया जिले के अम्हारा इलाके में क्लिनिक चलाने वाले डॉक्टर नरसिंह प्रताप सिंह दूर-दूर तक मशहूर हैं। आस-पास के कई जिलों से उनके पास मरीज आते हैं। जिस पर्चे पर वो दवाई लिखते हैं, उसमें सबसे ऊपर शेर पर सवार दुर्गा की एक तस्वीर बनी है और संस्कृत में एक श्लोक दर्ज है। इसके नीचे उनका नाम और ‘रजिस्ट्रेशन नम्बर 00080596’ लिखा है। पड़ताल करने पर वो खुद ही बता देते हैं कि ये असल में उनका यूनिवर्सिटी का रोल नम्बर है।
उनकी डिग्री के बारे में उनके पर्चे पर लिखा है ‘बी.ए.एस.एम.को.’। इस डिग्री के बारे में पूछने पर वो कहते हैं, ‘ये कोलकाता से होने वाली एक मेडिकल डिग्री है, जिसे बिहार सरकार मान्यता नहीं देती, लेकिन कई अन्य सरकारें देती हैं।’ हकीकत ये है कि कोई भी सरकार इस तरह के कोर्स को मान्यता नहीं देती और सेंट्रल काउंसिल ऑफ इंडियन मेडिसिन इस कोर्स को फर्जी घोषित कर चुकी है।
नरसिंह प्रताप सिंह 1971 से लोगों का इलाज कर रहे हैं। अपने बारे में वो कहते हैं, ‘मैंने करीब दस साल एक एमबीबीएस डॉक्टर के साथ काम किया है। मैं तब कंपाउंडर हुआ करता था। उसके बाद ही मैंने अपना डॉक्टर का काम शुरू किया। हमारे संविधान की धारा 62 में यह लिखा भी गया है कि दस साल किसी डॉक्टर के साथ काम करने वाले व्यक्ति को मेडिकल प्रैक्टिशनर का प्रमाणपत्र दिया जा सकता है।’
पूरे आत्मविश्वास से जब नरसिंह प्रताप सिंह संविधान का हवाला देते हैं तो उनके आस-पास मौजूद उनके मरीजों का उन पर विश्वास कुछ और मजबूत हो जाता है। वे नहीं जानते कि उनके ‘डॉक्टर साहब’ संविधान से जुड़ी जो बात कह रहे हैं, वो हकीकत से कोसों दूर है और संविधान का अनुच्छेद 62 तो असल में राष्ट्रपति चुनावों के संबंध में बात करता है।
डॉक्टर नरसिंह अपने मरीजों से कोई भी कंसलटेशन फीस नहीं लेते। वे सिर्फ दवा लिख देते हैं, जो उन्हीं की दवाई की दुकान से मरीज को खरीदनी होती है। इस पर होने वाली बचत ही उनकी फीस है। इसके अलावा वो कई बार खून की जांच या एक्स-रे भी लिख देते हैं, जो पास की ही एक लैब में हो जाती है। यह लैब कोई पैथोलॉजिस्ट या रेडियोलॉजिस्ट नहीं चला रहा, बल्कि लैब टेक्नीशियन का डिप्लोमा किए हुए लोगों के नाम से ही लैब चल रही है।
ऐसी लैब से निकली रिपोर्ट कितनी प्रामाणिक होगी, ये समझना मुश्किल नहीं है। इन रिपोर्ट्स पर किसी पैथोलॉजिस्ट या रेडियोलोजिस्ट के हस्ताक्षर भी नहीं होते। इसमें सिर्फ एक हस्ताक्षर होता है, जिसके नीचे ‘डीएमएलटी’ लिखा होता है, जिसका मतलब हुआ ‘डिप्लोमा इन मेडिकल लैबरेटरी टेक्नीक’। डिप्लोमा किया हुआ कोई व्यक्ति ही हस्ताक्षर कर देता है और मरीज इसे ही रिपोर्ट के प्रामाणिक का सबूत मान लेते हैं।
ये कहानी सिर्फ ‘डॉक्टर’ नरसिंह और उनके आस-पास खुली लैब की नहीं है। पूरे बिहार के ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य व्यवस्था ऐसे ही काम कर रही है। यहां बड़ी आबादी इन झोलाछाप डॉक्टरों के पास ही इलाज के लिए पहुंचती है। ये डॉक्टर अपना कोई बोर्ड वगैरह नहीं लगाते। इनकी सिर्फ एक केमिस्ट की दुकान होती है, जिसका लाइसेंस किसी फार्मासिस्ट के फर्जी दस्तावेज लगाकर आसानी से मिल जाता है।
सुपौल जिले के ऐसे ही एक झोलाछाप डॉक्टर बताते हैं, ‘पहले एक फार्मासिस्ट के दस्तावेजों पर ही कई-कई केमिस्ट के लाइसेंस जारी कर दिए जाते थे। अब एक फार्मासिस्ट के नाम पर एक ही केमिस्ट शॉप का लाइसेंस जारी होता है। लेकिन ड्रग इंस्पेक्टर के ऑफिस में बैठे दलाल ये लाइसेंस 50-60 हजार रुपए लेकर जारी करवा देते हैं।'
झोलाछाप डॉक्टर बिहार में कितने व्यापक पैमाने पर फैले हैं, इसका अंदाजा कृष्णा मिश्रा की बातों से लगाया जा सकता है। कृष्णा अररिया जिले में मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव का काम करते हैं। वो बताते हैं, ‘तमाम दवाई कंपनियां यहां जो दवाई बेच रही हैं, उसका 60 फीसदी से ज्यादा ऐसे ही झोलाछाप डॉक्टरों के जरिए लोगों तक पहुंच रहा है। एमबीबीएस डॉक्टरों के जरिए 40 फीसदी से भी कम दवाएं बिकती हैं। ग्रामीण इलाकों में तो लगभग सौ फीसदी दवाएं इन्हीं के जरिए जाती हैं, क्योंकि वहां दूर-दूर तक एमबीबीएस हैं ही नहीं।’
नरसिंह प्रताप सिंह बताते हैं कि अररिया जिले के सिर्फ फारबिसगंज ब्लॉक में ही 400 से ज्यादा झोलाछाप डॉक्टर हैं। वे कहते हैं, ‘बीते करीब दस सालों में ये संख्या तेजी से बढ़ी है। नौकरियां हैं, नहीं तो नए लड़के भी झोला लेकर डॉक्टर का काम शुरू कर रहे हैं। दो-तीन साल किसी डॉक्टर के साथ या किसी दवा की दुकान पर काम करने के बाद लड़के ये काम शुरू कर देते हैं।’
रामपुर पंचायत के रहने वाले विक्की मिश्रा बताते हैं, ‘गांव के लोग अधिकतर झोलाछाप के पास जाना ही पसंद करते हैं। एक तो झोलाछाप आस-पास के ही गांव के होते हैं, तो नजदीक ही रहते हैं। दूसरा, प्राइवेट अस्पताल की फीस इतनी ज्यादा है कि हर कोई वो चुका नहीं सकता। एक कारण ये भी है प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति बेहद खराब है। वो या तो हैं ही नहीं या उनमें डॉक्टर नहीं है।’
विक्की आगे कहते हैं, ‘मैं जब चौथी-पांचवीं में पढ़ता था तो माधवपुर पंचायत के मेरे स्कूल के ठीक पीछे एक स्वास्थ्य केंद्र बनना शुरू हुआ था। उसका ढांचा पूरा बनकर खड़ा हुआ और अब करीब 12-13 साल बाद वो ढांचा जर्जर होकर गिरने को हो गया है। लेकिन, उसमें कभी न तो कोई डॉक्टर आया, न कभी उसका उद्घाटन हुआ। ऐसे केंद्र यहां के तमाम गांवों में देखे जा सकते हैं।’
बिहार के ये झोलाछाप डॉक्टर अमूमन सर्दी, खांसी, बुखार, पीलिया, डायरिया या मलेरिया जैसी बीमारियों में लोगों को प्राथमिक उपचार देते आए हैं। इनमें कुछ लोग अब बतौर डॉक्टर अपनी पहचान स्थापित कर चुके हैं तो उन्होंने दुकानें खोल ली हैं, जबकि कई साइकल पर झोला लटकाए गांव-गांव घूमते हैं और लोगों का इलाज करते हैं।
बिहार में स्वास्थ्य व्यवस्था इन झोलाछाप पर इस कदर निर्भर है कि सरकार अगर सख्ती से इन पर पाबंदी लगा दे, तो पूरी व्यवस्था ही चरमराने लगेगी। झोलाछाप डॉक्टरों का अस्तित्व बिहार में एक खुला हुआ रहस्य है। वे जो काम कर रहे हैं, वह कानूनन गलत है, लेकिन सरकार के पास कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है इसलिए इन्हें नजरंदाज करके चलने दिया जाता है।
साल 1993 में ‘सोसायटी फॉर सोशल हेल्थ केयर’ नाम के एक एनजीओ ने इन लोगों को प्रशिक्षण देने का एक खाका तैयार किया था। इसके तहत कई लोगों को चार-पांच महीने का प्रशिक्षण दिया गया, ताकि वे प्राथमिक उपचार से जुड़ी मूलभूत बातें सीख सकें। इसका काफी फायदा भी हुआ, लेकिन आज बात बहुत आगे बढ़ चुकी है। आज कई झोलाछाप डॉक्टर सिर्फ प्राथमिक उपचार ही नहीं, बल्कि ऑपरेशन तक करने लगे हैं।
गालब्लेडर में पथरी, बच्चादानी निकालने और हर्निया जैसे ऑपरेशन जगह-जगह झोलाछाप डॉक्टर खुद ही करने लगे हैं। ये गैर कानूनी तो है ही, साथ ही लोगों की जिंदगी को सीधे-सीधे खतरे में डालने वाला भी है। इन पर गाहे-बगाहे कार्रवाई होती भी है, लेकिन कुछ ही समय बाद ये फिर से शुरू हो जाते हैं और इसका मुख्य कारण सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था का बेहद लचर होना है।
बीते सालों में झोलाछाप डॉक्टरों की संख्या कम होने की जगह तेजी से बढ़ी है। इस बारे में विक्की मिश्रा कहते हैं, ‘जब हम छोटे थे तो हमारे पूरे इलाके में दो-तीन ही ऐसे डॉक्टर हुआ करते थे। एक मुमताज भैया के पापा थे, एक बिंदेश्वरी अंकल थे और शायद एक और कोई थे। लेकिन, आज तो गांव में ही 14-15 से ज्यादा ऐसे डॉक्टर हो गए हैं।’
स्वास्थ्य व्यवस्था का इस कदर लचर होना क्या इन चुनावों में एक मुद्दा होगा? यह सवाल करने पर अररिया के पंकज मंडल कहते हैं, ‘ये बिलकुल भी मुद्दा नहीं होगा। झोलाछाप डॉक्टर असली डॉक्टर हैं या नहीं, इससे गांव के लोगों को फर्क ही नहीं पड़ता। उनके लिए तो ये भगवान हैं, जो कम पैसे में सालों से उनका इलाज करते आ रहे हैं। युवाओं के लिए भी ये मुद्दा नहीं है, क्योंकि नौकरियां नहीं हैं, तो इसी बहाने कई लोगों को काम मिल जाता है। मुझे भी अगर कोई नौकरी नहीं मिली तो मैं भी आसानी से झोलाछाप बन सकता हूं।’
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