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आस्था वह विश्वास है कि ईश्वर या तो हमारे साथ चलेगा या गोद में लेकर, आस्था का स्थान आपका हृदय है, जिसे आप खुद ही बनाते हैं

एक बार एक व्यक्ति ने सपना देखा कि वह ईश्वर के साथ समुद्र किनारे चल रहा है। उसकी जिंदगी के कई दृश्य आसमान पर नजर आ रहे हैं। हर दृश्य में उसने देखा कि रेत में पैरों के निशान हैं। कभी-कभी निशानों के दो जोड़े भी दिखे। तो कभी-कभी एक। इससे व्यक्ति परेशान हो गया क्योंकि उसने देखा कि जब वह जीवन में परेशान था, तब उसे पैरों के निशानों का एक ही जोड़ा दिख रहा था।

इसलिए उसने ईश्वर से कहा, ‘आपने मुझसे वादा किया था कि मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा। लेकिन मैंने देखा कि जब मैं मुश्किल में था, तब रेत में निशानों का एक ही जोड़ा था। जब मुझे सबसे ज्यादा जरूरत थी, तब क्या आप मेरे साथ नहीं थे?’ ईश्वर ने जवाब दिया, ‘उस समय जब तुम्हें पैरों के निशानों का एक ही जोड़ा दिख रहा है, तब मैंने तुम्हें अपनी गोद में उठा लिया था।’

आस्था वह विश्वास है कि ईश्वर या तो हमारे साथ चलेगा या गोद में लेकर। आस्था का स्थान आपका हृदय है, जिसे आप खुद ही बनाते हैं। आपकी पांचों इंद्रियों से जाने वाला कुछ भी आपकी आस्था को नहीं छू सकता क्योंकि इंद्रियों की पहुंच दिल तक नहीं है। आस्था हृदय की बुद्धिमत्ता है, जबकि विश्वास मन की।

हृदय को किसी सबूत की आवश्यकता नहीं है। हृदय हर अनुभव से अपनी आस्था की जड़ें मजबूत करता है। जबकि मन हर अनुभव का इस्तेमाल अपने विश्वास के आधार को कमजोर करने के लिए करता है।

आस्था विज्ञान विरोधी नहीं है, यह बस विज्ञान की समझ के परे है। हर सफर की शुरुआत एक आस्था है। यह आस्था कि हम पहुंचेंगे, सफल होंगे। आस्था उसपर विश्वास करने की क्षमता है, जिसे हम देख नहीं सकते, जो अभी हुआ नहीं है, जिसे अभी साबित नहीं किया जा सकता। अगर आस्था का मतलब वह है, जिसे आप देख नहीं सकते, तो उसका इनाम यह होगा कि एक दिन आप उसे देखेंगे, जिसपर आपको हमेशा से विश्वास था।

एक बार हनुमान ने श्रीराम से कहा, ‘हे भगवान, ऐसा कुछ है, जो आपसे भी श्रेष्ठ है।’ श्रीराम ने चकित होकर हनुमान से पूछा, ‘वह चीज क्या है?’ हनुमान बोले, ‘हे प्रभु, आपने नाव की मदद से नदी पार की। लेकिन मैंने आपके नाम की शक्ति से पूरा समुद्र पार कर लिया। आपके नाम से ही समुद्र में पत्थर तैरे। इसलिए आपसे श्रेष्ठ आपका नाम है।’

‘आस्था का विषय’ (व्यक्ति, ईश्वर, वस्तु, विचार आदि) नहीं, खुद ‘आस्था’ ही चमत्कार करती है। आस्था का विषय जरिया मात्र होता है। जीसस के लिए ‘अब्बा’ थे, मदर टेरेसा के लिए ‘जीसस’, द्रौपदी के लिए ‘कृष्ण’, पैगंबर के लिए ‘अल्लाह’, एकलव्य के लिए ‘द्रोण’, हनुमान के लिए ‘राम’ थे। फिर भी सभी ने अपने जीवन में आस्था की चमत्कारिक शक्ति का अनुभव किया, जिससे साबित होता है कि ‘आस्था का विषय’ नहीं, उस ‘विषय में आस्था’ से चमत्कार होते हैं।

जैसे विचार, उन्हें जन्म देने वाले मन से ज्यादा शक्तिशाली होते हैं, उसी तरह आस्था भी ‘विषय’ से ज्यादा शक्तिशाली है। हालांकि इंसान यह समझने में गलती करता है। जब भी उसे कुछ चमत्कारिक अनुभव होता है, वह श्रेय ‘आस्था के विषय’ को दे देता है, जबकि वे चमत्कार उसकी ‘विषय में आस्था’ की वजह से होते हैं। समझ में इस चूक की वजह से वह ‘आस्था के विषय’ को खुश करने के लिए अनुष्ठान करता है।

वह अपना ‘आस्था का विषय’ भी बदल लेता है। ईश्वर के एक स्वरूप से कोई दूसरा...। वह हर चीज पर ध्यान देता है, सिवाय आस्था के। सवाल यह नहीं है कि आपका ‘ईश्वर’ कौन है, सवाल यह है कि ईश्वर में आपकी ‘आस्था’ कितनी मजबूत है।

बिना आस्था के आप में डर होगा। लेकिन जब आप आस्था को जानेंगे तो कोई डर नहीं होगा। आस्था और डर एक साथ नहीं रह सकते। विकल्प इंसान की बुद्धिमत्ता से पैदा होते हैं और नतीजे उस ईश्वर की बुद्धिमत्ता से। आस्था यह जानना है कि कभी-कभी हमारी योजना असफल होगी, ताकि वह आपके लिए अपनी योजना लागू कर सके। उसकी योजना आपके लिए हमेशा सही होगी।

इसलिए आप आस्था में यह नहीं पूछते, ‘मेरे साथ यह क्यों हो रहा है?’ लेकिन आप आस्था के साथ यह पूछते हैं, ‘मेरे ईश्वर, मुझे इस सबमें डालकर आप मुझे किस चीज के लिए तैयार कर रहे हैं? इसके पीछे आपका बड़ा उद्देश्य क्या है, जो मैं अब तक नहीं देख पा रहा हूं?’ जो परमशक्ति आपको इस परिस्थिति में लाई, वही बाहर भी निकालेगी।



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